जब मन के सब सुख दूर हुए,
हम जीने को मजबूर हुए,
हम जीने को मजबूर हुए,
तब से झूठे सपनों का रंग
आँखों में भरना सीख गए।
मेरा मन का जो अपना था,
वो प्यारा सा इक सपना था,
सच हुआ मगर केवल छल था
वो प्यारा सा इक सपना था,
सच हुआ मगर केवल छल था
जैसे खुशियों का इक पल था।
जब सच ने हर सपना लूटा,
और हर वादा हुआ झूठा,
और हर वादा हुआ झूठा,
तब से इन चांद सितारों से
हम बातें करना सीख गए।
मन मेरा प्रियतम का घर था,
पावन मंदिर सा सुंदर था,
इक दिन फिर हुआ ना जाने क्या
पावन मंदिर सा सुंदर था,
इक दिन फिर हुआ ना जाने क्या
ना मंदिर था ना ईश्वर था।
जब देव ने देवालय तोड़ा,
विश्वास ने भी दामन छोड़ा,
तब से राहों के पत्थर की
हम पूजा करना सीख गए।
11 comments:
कविता का न तो क्राफ्ट दुरस्त है और न ही कथ्य में नयापन है। कुछ बेहतर लिखें।
www.hindyugm.com
सुन्दर, बेहद भावप्रद
आपकी कविता बहुत पसंद आयी
शैलेश को पसंद नही आई लेकिन मुझे यह अच्छा लगा. अगर और अच्छा लिखे तो और भी बेहतर होगा
सह्ज,सरल भाव है लिखते रहे
आपने भावों को शब्द दिये. अच्छा है. शिल्प धीरे धीरे सुधरता है. थोड़ा ध्यान दें.
जब मन के भावो को पिरोकर एक माला गुँथ ही दी है तो चारू एक दिन वह अवश्य अपनी महक चारो और फ़ैलायेगी...आप लिखती रहिये आपका लेखन सुन्दर, सहज है
bahut khubsurat bhav hai.
pasand naa aaney kaa to sawal hee nahi hai, bcoz ismey ek bahut achchi aur khaas baat yeh hai ki, jo bhi likha hai dil se likha hai, very nice charu g, aagey badtey raho hamesha by ayaann786@yahoo.com
चारु जी;
आपकी पिछली कविता 13 फरवरी को आयी थी.
उसके बाद अभी तक नयी कविता नहीं आयी
हम प्रतीक्षा कर रहे हैं
आपकी यह रचना प्रभावी नही लगी |
आप और अच्छा लिखेंगी ऐसी आशा के साथ ....
अवनीश तिवारी
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