Tuesday, September 9, 2008
रुकते अगर...
हम दूर थे हमीं से, हमको ना थी खबर,
जो खुद को तलाशने चले, तो तू खड़ा मिला।
सब हसरतों को दफ्न कर दिया था जहां पर,
इक दरख़्त प्यारा सा वहीं खिला मिला।
हम सच को ढूंढ़ते फिरे लफ्जों के नगर में,
खामोशियों के गांव में उसका निशां मिला।
रुकते अगर तो मजिलें नसीब भी होतीं,
चलने की धुन में हमको फक़त रास्ता मिला।
ये दर्द है अजीब हमें और क्या कहें,
दोनों जहां लुटा के चैन स्वर्ग सा मिला।
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