जब कभी फुरसत मिले इन गेसुओं के छांव से,
धूप में जलते हुए नंगे बदन को देखिए।
फूलों सी नाजुक बाजुओं की पाश से छुटकर,
कभी बेघरों के देश में उजड़े चमन को देखिए।
अनगिनत रिश्तों की हथकड़ियों में ना जकड़े रहो,
हाथ से खुदगर्जों के बिकते वतन को देखिए।
याद है तरुणाई में थामी थो जो जलती मशाल,
दफ्न है सीने में अब भी उस अगन को देखिए।
है कशिश माना बहुत कमसिन नजर में पर कभी,
बेटे का खत बांचते बूढ़े नयन को देखिए।
है नहीं माली मगर बंजर वीराने मे कहीं,
तोड़ पत्थर को खिला जो उस सुमन को देखिए।
Saturday, January 26, 2008
Wednesday, January 23, 2008
इन पत्थरों के शहर में...
इन पत्थरों के शहर में हमको गुलों की तलाश है,
इस जिस्म-ओ-जां के बाजार में भोले दिलों की तलाश है।
हर रंग में बिकती हुई मुस्कान का सच झूठ क्या,
मेरे जलते सीने से लगे अब ऑंसुओं की तलाश है।
इन काले काले भौंरों की खुशामदी कब तक सुनें,
रस को संजोती छत्तों पर मधुमक्खियों की तलाश है।
घर के दिए को छोड़कर अंधेरों में भागें फिरें,
क्यों आजकल हर एक को बस जुगुनुओं की तलाश है।
आ छुप के बैठ जाएं चल, तनहा गगन के तले कहीं,
जो खोल दें सब राज-ए-दिल, खामोशियों की तलाश है।
इस जिस्म-ओ-जां के बाजार में भोले दिलों की तलाश है।
हर रंग में बिकती हुई मुस्कान का सच झूठ क्या,
मेरे जलते सीने से लगे अब ऑंसुओं की तलाश है।
इन काले काले भौंरों की खुशामदी कब तक सुनें,
रस को संजोती छत्तों पर मधुमक्खियों की तलाश है।
घर के दिए को छोड़कर अंधेरों में भागें फिरें,
क्यों आजकल हर एक को बस जुगुनुओं की तलाश है।
आ छुप के बैठ जाएं चल, तनहा गगन के तले कहीं,
जो खोल दें सब राज-ए-दिल, खामोशियों की तलाश है।
Monday, January 21, 2008
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
मैली कुचली गुदड़ी में लिपटे हुए अरमानों पर
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
भूख में जन्मे धूप में जन्मे, किसी अंधेरे कूप में जन्मे,
जाने किस आँचल के लाल ये, हाय ये कैसे रूप मे जन्मे,
बेबस आँखें हाथ पसारे नन्ही नन्ही जानों पर
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
अभिलाषाओँ की नगरी में ये पांवों की ठोकर खाते,
फेंके गए टुकड़ों से हाय जाने कैसे भूख मिटाते,
पेट की आग में जलते हुए इंसान के स्वाभिमानों पर,
गीत कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
रंग बिरंगे शहरों की, सड़कों की कुचली धूल के जैसे,
कुदरत के हाथों कलंकित, मानवता की भूल के जैसे,
फुटपाथों में बिखरे हुए, इन जिंदा श्मशानों पर,
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
कुदरत के हाथों कलंकित, मानवता की भूल के जैसे,
फुटपाथों में बिखरे हुए, इन जिंदा श्मशानों पर,
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
भूख में जन्मे धूप में जन्मे, किसी अंधेरे कूप में जन्मे,
जाने किस आँचल के लाल ये, हाय ये कैसे रूप मे जन्मे,
बेबस आँखें हाथ पसारे नन्ही नन्ही जानों पर
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
अभिलाषाओँ की नगरी में ये पांवों की ठोकर खाते,
फेंके गए टुकड़ों से हाय जाने कैसे भूख मिटाते,
पेट की आग में जलते हुए इंसान के स्वाभिमानों पर,
गीत कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
Friday, January 18, 2008
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
खोकर निज स्नेह धार ही मेघ धवल हो पाते हैं,
इस मनभावन सावन में ही क्यों पांव फिसल फिर जाते हैं,
द्वंदों से भरी इस घरती पर जीवन का सीधा पथ क्या है?
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
नयनों के स्वप्न झरोंखों से सारा जग सुंदर लगता है,
इनमे आँसू आ जाते हैं जब कोई ठोकर लगता है
फिर भी सपनों में खोने को इस भोले मन का हठ क्या है?
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
नहीं रंग चित्रपट और तूलिका ना ही कोई चितेरा है,
फिर भी नभ के अंतस्तल में ये सात रंग का घेरा है,
उत्सुक सूरज को ढकने को ये घना मेघ का पट क्या है?
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
इस मनभावन सावन में ही क्यों पांव फिसल फिर जाते हैं,
द्वंदों से भरी इस घरती पर जीवन का सीधा पथ क्या है?
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
नयनों के स्वप्न झरोंखों से सारा जग सुंदर लगता है,
इनमे आँसू आ जाते हैं जब कोई ठोकर लगता है
फिर भी सपनों में खोने को इस भोले मन का हठ क्या है?
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
नहीं रंग चित्रपट और तूलिका ना ही कोई चितेरा है,
फिर भी नभ के अंतस्तल में ये सात रंग का घेरा है,
उत्सुक सूरज को ढकने को ये घना मेघ का पट क्या है?
हमको बतला दो 'सच' क्या है?
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