Monday, January 21, 2008

कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।

मैली कुचली गुदड़ी में लिपटे हुए अरमानों पर
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।
रंग बिरंगे शहरों की, सड़कों की कुचली धूल के जैसे,
कुदरत के हाथों कलंकित, मानवता की भूल के जैसे,
फुटपाथों में बिखरे हुए, इन जिंदा श्मशानों पर,

कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।


भूख में जन्मे धूप में जन्मे, किसी अंधेरे कूप में जन्मे,
जाने किस आँचल के लाल ये, हाय ये कैसे रूप मे जन्मे,
बेबस आँखें हाथ पसारे नन्ही नन्ही जानों पर
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।


अभिलाषाओँ की नगरी में ये पांवों की ठोकर खाते,
फेंके गए टुकड़ों से हाय जाने कैसे भूख मिटाते,
पेट की आग में जलते हुए इंसान के स्वाभिमानों पर,
गीत कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।

5 comments:

Prabhakar Pandey said...

बेबस आँखें हाथ पसारे नन्ही नन्ही जानों पर
कौन सा गीत लिखूं मैं इन टूटे फूटे इंसानों पर।--

कमाल की रचना। गहरे विचार। बहुत खूब।

Anonymous said...

bahut gehri soch hai,par stya ka sakshatkar karati,sach kya likhe aisi zindagi par,phul bhi hai,par murjhaye huye,koi hoga enhe pher se khilkhilata kara sake.god knows.

apki achana behad achhi hai.

Anonymous said...

charu ji...bahut badhiya hai aap ko soch...aur andolit hai aap ki shabda....likhte rahiye....

saroj/nepal

अमिताभ मीत said...

अच्छा है. राष्ट्रकवि दिनकर की एक कविता "हाहाकार" याद आ गयी. ख़ास तौर पे ये दो पंक्तियाँ :
"बेकसूर नन्हें जीवों का शाप विश्व पर पडा हिमालय
हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय ?"
बहुत अच्छी सोच. बधाई.

अवनीश एस तिवारी said...

समर्थन है आपके इन विचारों का |

बधाई |


अवनीश तिवारी