Saturday, January 26, 2008

जब कभी फुरसत मिले

जब कभी फुरसत मिले इन गेसुओं के छांव से,
धूप में जलते हुए नंगे बदन को देखिए।

फूलों सी नाजुक बाजुओं की पाश से छुटकर,

कभी बेघरों के देश में उजड़े चमन को देखिए।


अनगिनत रिश्तों की हथकड़ियों में ना जकड़े रहो,
हाथ से खुदगर्जों के बिकते वतन को देखिए।


याद है तरुणाई में थामी थो जो जलती मशाल,
दफ्न है सीने में अब भी उस अगन को देखिए।


है कशिश माना बहुत कमसिन नजर में
पर कभी,
बेटे का खत बांचते बूढ़े नयन को देखिए।


है नहीं माली मगर बंजर वीराने मे कहीं,
तोड़
पत्थर को खिला जो उस सुमन को देखिए।

6 comments:

सुनीता शानू said...

चारू वैसे तो हर शेर खूबसूरत है मगर इन दो की बात ही कुछ अलग है...
है कशिश माना बहुत कमसिन नजर में,
पर कभी बेटे का खत बांचते बूढ़े नयन को देखिए।

है नहीं माली मगर बंजर वीराने मे कहीं,
तोड़ पत्थर को खिले कभी उस सुमन को देखिए।
बहुत सुन्दर अल्फ़ाज है...

Manish Kumar said...

सही कहा आपने यथार्थ को परे रख सिर्फ रूमानियत से जिंदगी नहीं चलती. पूरी ग़ज़ल अच्छी है।
छुटकर की जगह छूटकर सुधार कर लें।

singh said...

वाह....बहुत सुन्दर[हॆ कशिश माना....]
विक्रम

Anonymous said...

khubsurat,every word is like fire reminding what we forget in day today life. great.

Anonymous said...

चारु जी, भाव बहुत अच्छे है, बल्कि बहुत बहुत अच्छे हैं.
पर आपकी कविता मीटर में नहीं है. यदि आप इसे ठीक करलें तो बुलन्दी पर पहुंचेंगी.
अन्यथा न लें.

गुस्ताखी माफ said...

अनगिनत रिश्तों की हथकड़ियों में ना जकड़े रहो,
हाथ से खुदगर्जों के बिकते वतन को देखिए।

vah