Thursday, March 19, 2009

…….और मै अपने टूटे दिल की शिकायतों पर हँस पड़ी


कुछ बुझे बेबस पलों को
चन्द पंक्तियों मे ढाल ,
देना चाहा था किसी को
दर्द का पैगाम

पर हाय.. इक झोका
उड़ा ले गया ,
वो कागज़ का टुकड़ा ...
छोड़ गया गालों पर ...
सूखे आँसुओ के दाग

मैने देखा इक कूड़े के ढेर पर
कुछ नन्ही जाने ,
बीन रही थी
फेंके गए कुछ रंगीन टुकड़े ...
और मै अपने टूटे दिल की शिकायतों पर हँस पड़ी...

एक पुरानी सीलन भरी दीवार की दरारें
सुनाती रही अपनी आत्मकथा ,
नाली के पास की बेल के मुस्काते फूल पर
टिकी रही नजरें

मेरी अतृप्ति बेतहासा दौड़ रही है
इस तपती भूमि में ,
जानते हुए कि
रेत में पानी नही मिलता,
फिर भी ये उम्मीद कि
शायद चमत्कार सी कोई नदी मिल जाए...

जुगनुओं से झिलमिलाती
इस सुरंग के पार ,
क्या होगा कोई रोशनी का नगर ?
पर उसके बाद क्या...?
थम के रह जायेगी यात्रा... ?

--चारुलेखा पाण्डेय