Tuesday, September 9, 2008

रुकते अगर...


हम दूर थे हमीं से, हमको ना थी खबर,
जो खुद को तलाशने चले, तो तू खड़ा मिला।

सब हसरतों को दफ्न कर दिया था जहां पर,
इक दरख़्त प्यारा सा वहीं खिला मिला।

हम सच को ढूंढ़ते फिरे लफ्जों के नगर में,
खामोशियों के गांव में उसका निशां मिला।

रुकते अगर तो मजिलें नसीब भी होतीं,
चलने की धुन में हमको फक़त रास्ता मिला।

ये दर्द है अजीब हमें और क्या कहें,
दोनों जहां लुटा के चैन स्वर्ग सा मिला।


5 comments:

Unknown said...

Bahut khub.

श्रीकांत पाराशर said...

Chalane ki dhun men hamen fakat rasta hi mila, bahut achhi pankti hai. poori rachna badhia hai.

संगीता पुरी said...

बहुत ही अच्छा।

वीनस केसरी said...

रुकते अगर तो मजिलें नसीब भी होतीं,
चलने की धुन में हमको फक़त रास्ता मिला।

ये दर्द है अजीब हमें और क्या कहें,
दोनों जहां लुटा के चैन स्वर्ग सा मिला।

सुंदर भाव
सुंदर अभिव्यक्ति
कविता का सुंदर सञ्चालन



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वीनस केसरी

rakhshanda said...

रुकते अगर तो मजिलें नसीब भी होतीं,
चलने की धुन में हमको फक़त रास्ता मिला।

ये दर्द है अजीब हमें और क्या कहें,
दोनों जहां लुटा के चैन स्वर्ग सा मिला।

bahut sundar