Wednesday, February 13, 2008

झूठे सपनों के रंग



जब मन के सब सुख दूर हुए,
हम जीने को मजबूर
हुए,
तब से झूठे सपनों का रंग
आँखों में भरना सीख गए।

मेरा मन का जो अपना था,
वो प्यारा सा इक सपना
था,
सच हुआ मगर केवल छल था
जैसे खुशियों का इक पल था।

जब सच ने हर सपना लूटा,
और हर वादा हुआ झूठा,
तब से इन चांद सितारों से
हम बातें करना सीख गए।


मन मेरा प्रियतम का घर था,
पावन मंदिर सा सुंदर था,
इक दिन फिर हुआ ना जाने क्या
ना मंदिर था ना ईश्वर था।


जब देव ने देवालय तोड़ा,
विश्वास ने भी दामन छोड़ा,
तब से राहों के पत्थर की
हम पूजा करना सीख गए।

11 comments:

शैलेश भारतवासी said...

कविता का न तो क्राफ्ट दुरस्त है और न ही कथ्य में नयापन है। कुछ बेहतर लिखें।

www.hindyugm.com

गुस्ताखी माफ said...

सुन्दर, बेहद भावप्रद
आपकी कविता बहुत पसंद आयी

Rajesh Roshan said...

शैलेश को पसंद नही आई लेकिन मुझे यह अच्छा लगा. अगर और अच्छा लिखे तो और भी बेहतर होगा

Samrendra Sharma said...

सह्ज,सरल भाव है लिखते रहे

राकेश खंडेलवाल said...

आपने भावों को शब्द दिये. अच्छा है. शिल्प धीरे धीरे सुधरता है. थोड़ा ध्यान दें.

सुनीता शानू said...

जब मन के भावो को पिरोकर एक माला गुँथ ही दी है तो चारू एक दिन वह अवश्य अपनी महक चारो और फ़ैलायेगी...आप लिखती रहिये आपका लेखन सुन्दर, सहज है

Anonymous said...

bahut khubsurat bhav hai.

tarun said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

pasand naa aaney kaa to sawal hee nahi hai, bcoz ismey ek bahut achchi aur khaas baat yeh hai ki, jo bhi likha hai dil se likha hai, very nice charu g, aagey badtey raho hamesha by ayaann786@yahoo.com

गुस्ताखी माफ said...

चारु जी;
आपकी पिछली कविता 13 फरवरी को आयी थी.
उसके बाद अभी तक नयी कविता नहीं आयी
हम प्रतीक्षा कर रहे हैं

अवनीश एस तिवारी said...

आपकी यह रचना प्रभावी नही लगी |
आप और अच्छा लिखेंगी ऐसी आशा के साथ ....


अवनीश तिवारी