Wednesday, October 15, 2008

आँखों मे था कोई रंगीन सा पर्दा

दिल मे दहकते शोले दहकते चले गए।
हम अपनी बेखुदी पे ही हँसते चले गए ।

रेशम के तार से बुन रहे थे कोई ख्वाब,
वो जाल कैसे बन गए, फंसते चले गए।

इक आह सी निकली थी, दम घुटने लगा था,
हम ग़म के बाजुओं मे कसते चले गए।

फूलों भरी राहों में छिपे थे हजारों खार,
पाँवों से लहू बन के रिसते चले गए।

आँखों में था कोई रंगीन सा पर्दा,
पाँवों को कैसे रास्ते दिखते चले गए।

हर बार उजड़ता रहा ये दिल का बसेरा
हर बार ईट नीव की रखते चले गए।




11 comments:

विवेक सिंह said...

अति सुन्दर !

makrand said...

हर बार उजड़ता रहा ये दिल का बसेरा
हर बार ईट नीव की रखते चले गए।

bahut sunder rachana
regards

Anonymous said...

अच्‍छी रचना। ये पंक्तियां विशेष लगीं-
रेशम के तार से बुन रहे थे कोई ख्वाब,
वो जाल कैसे बन गए, फंसते चले गए।

श्रीकांत पाराशर said...

Bahut sundar rachna hai.

Vinay said...

दिल मे दहकते शोले दहकते चले गए।
हम अपनी बेखुदी पे ही हँसते चले गए

फूलों भरी राहों में छिपे थे हजारों खार,
पाँवों से लहू बन के रिसते चले गए

इन दो अश'आर की बात जुदा है!

रंजना said...

waah..bahut sundar likha hai.saral shabdon me bhaavpoorn abhivyakti.

Shiv said...

बहुत बढ़िया.

Abhishek Ojha said...

सुंदर रचना !

Unknown said...

काश की आपकी ज़िंदगी दर्द के अहसासों से दूर हो और आप कह उठें
जबसे मिले हैं वो हमसफ़र बन कर
कैसे कैसे ख्वाब आंखों में बसते चले गए

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

wah, wah, wah.

http://www.ashokvichar.blogspot.com

अवनीश एस तिवारी said...

यह रचना बहुत सुंदर है | जितना मुझे पता है इसे ग़ज़ल कहा जा सकता है |

लेकिन पहली पंक्ति -
दिल मे दहकते शोले दहकते चले गए।
का शब्द "दहकते" और पंक्तियों के काफिया से मेल नही खा रहा है |

रचना के भाव सुंदर है |
बधाई |

अवनीश तिवारी