दिल मे दहकते शोले दहकते चले गए।
हम अपनी बेखुदी पे ही हँसते चले गए ।
रेशम के तार से बुन रहे थे कोई ख्वाब,
वो जाल कैसे बन गए, फंसते चले गए।
इक आह सी निकली थी, दम घुटने लगा था,
हम ग़म के बाजुओं मे कसते चले गए।
फूलों भरी राहों में छिपे थे हजारों खार,
पाँवों से लहू बन के रिसते चले गए।
आँखों में था कोई रंगीन सा पर्दा,
पाँवों को कैसे रास्ते दिखते चले गए।
हर बार उजड़ता रहा ये दिल का बसेरा
हर बार ईट नीव की रखते चले गए।
हम अपनी बेखुदी पे ही हँसते चले गए ।
रेशम के तार से बुन रहे थे कोई ख्वाब,
वो जाल कैसे बन गए, फंसते चले गए।
इक आह सी निकली थी, दम घुटने लगा था,
हम ग़म के बाजुओं मे कसते चले गए।
फूलों भरी राहों में छिपे थे हजारों खार,
पाँवों से लहू बन के रिसते चले गए।
आँखों में था कोई रंगीन सा पर्दा,
पाँवों को कैसे रास्ते दिखते चले गए।
हर बार उजड़ता रहा ये दिल का बसेरा
हर बार ईट नीव की रखते चले गए।
11 comments:
अति सुन्दर !
हर बार उजड़ता रहा ये दिल का बसेरा
हर बार ईट नीव की रखते चले गए।
bahut sunder rachana
regards
अच्छी रचना। ये पंक्तियां विशेष लगीं-
रेशम के तार से बुन रहे थे कोई ख्वाब,
वो जाल कैसे बन गए, फंसते चले गए।
Bahut sundar rachna hai.
दिल मे दहकते शोले दहकते चले गए।
हम अपनी बेखुदी पे ही हँसते चले गए
फूलों भरी राहों में छिपे थे हजारों खार,
पाँवों से लहू बन के रिसते चले गए
इन दो अश'आर की बात जुदा है!
waah..bahut sundar likha hai.saral shabdon me bhaavpoorn abhivyakti.
बहुत बढ़िया.
सुंदर रचना !
काश की आपकी ज़िंदगी दर्द के अहसासों से दूर हो और आप कह उठें
जबसे मिले हैं वो हमसफ़र बन कर
कैसे कैसे ख्वाब आंखों में बसते चले गए
wah, wah, wah.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
यह रचना बहुत सुंदर है | जितना मुझे पता है इसे ग़ज़ल कहा जा सकता है |
लेकिन पहली पंक्ति -
दिल मे दहकते शोले दहकते चले गए।
का शब्द "दहकते" और पंक्तियों के काफिया से मेल नही खा रहा है |
रचना के भाव सुंदर है |
बधाई |
अवनीश तिवारी
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